प्रसव के दौरान होने वाली समस्यायें

प्रसव का समय गर्भ धारण करने के नौंवे महीने या 252 दिनों के बाद कभी भी हो सकता है. प्रसव के पहले चरण में गर्भवती महिला के योनि मार्ग से रक्त मिला श्लेष्मा पदार्थ निकलना आरम्भ हो जाता है. पानी भरी झिल्ली जिसमें शिशु लगभग तैरता-सा रहता है, टूट जाती है और योनि मार्ग से तरल पदार्थ बह निकलता है. इस दौरान बार-बार रह-रहकर पीड़ा होती है.

प्रसव पीडा से आशय उस पीड़ा से है जो एक निश्चित औरनियत अंतराल में रह-रहकर उठती है. जज-जब यह पीड़ा होती है गर्भाशय बार-बार सिकुड़ता-फैलता रहता है. इस पीड़ा की प्रकृति होती है कि यह कभी एकदम तीव्र उठती है और धीरे-धीरे कम होती जाती है. कभी यह पीड़ा धीरे-धीरे उठती हुई तीव्र होती है. प्रसव की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, तेजी से माँस-पेशियों में सिकुड़न होने लगती है.

प्रसव की दूसरी अवस्था में गर्भ का मुख पूरी तरह फैल जाता है और बच्चा सिर की ओर से निकलने  लगता है. इस अवधि में गर्भधारी स्त्री को साँस भरकर और उसे रोककर जोर लगाने की जरूरत पड़ती है. यह क्रिया बच्चे को बाहर निकलने में सहायक होती है. इस क्रिया को करने की सलाह स्वयं नर्स, दाई या चिकित्सक देते हैं.

जब बच्चे का सिर बाहर निकल आता है तो नर्स या चिकित्सक उसे बाहर लाने में सहायता करते हैं. इसमें कुछ कठिनाई होने पर फोरसेप जैसे औजार से बच्चे के सिर को फँसाकर हल्के-हल्के खींचा जाता है जिससे बच्चे को कोई नुकसान नहीं होता. आमतौर पर सिर निकल आने के बाद पूरे शरीर को बाहर निकालने में कोई खास दिकक्त नहीं होती.

कभी-कबी बच्चे के सिर को निकालने में कठिनाई होती है. योनि मार्ग इतना नहीं फैल पाता कि बच्चा बाहर निकल सके. ऐसे में योनिमार्ग के किनारे पर चीरे लगाकर उस मार्ग को चौड़ा कर दिया जाता है और प्रसव के बाद टांके लगा दिये जाते हैं. कुछ समय के बाद यह ठीक होकर पूर्वावस्था में आ जाती है.

यदि बच्चा किन्हीं कारणों से गर्भ में तिरछा हो जाता है और प्रयत्नों के बावजूद भी सीधी अवस्था में नहीं आ पाता है तो चिकित्सक पेट और गर्भाशय में चीरा लगाकर बच्चे को बाहर निकालते हैं. इसे सीजारियन सेक्शन या उदर प्रसव कहते हैं. इसलिये यह जरूरी है कि गर्भावस्था के दौरान समय-समय पर जाँच अवश्य कराएं. यह आवश्यक है कि प्रसव स्वाभाविक क्रियाओं द्वारा हो. प्रसव के बाद भी स्त्रियों और बच्चे का ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है.